हिंद महासागर के लगभग बीच में मिला कोबाल्ट के बहुतायत वाले पहाड़ पर भारत, श्रीलंका समेत कई देश अपना दावा ठोकते हैं।
यह पहाड़ भारत की सीमा से 850 मील दूर दक्षिण में स्थित है। इस पहाड़ का नाम अफानासी निकितिन सीमाउंट है। यह मुक्त समुद्री क्षेत्र में स्थित है ऐसे में किसी भी देश का इस पर सीधा अधिकार नहीं है।
हिंद महासागर में मालद्वीप के साथ रिश्तों का बिगड़ना और आर्थिक संकट के पहले श्रीलंका का चीन की गोद में बैठे रहना भारत के लिए चिंता को बढ़ाने वाला था।
हाल ही में श्रीलंका द्वारा डॉक करने की अनुमति न मिलने पर चीन के एक जहाज को मालद्वीप ने अपने क्षेत्र में डॉक करने की अनुमति दी।
अलजजीरा में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक पड़ोसी देशों की इन हरकतों ने भारत को इस क्षेत्र में जल्दी से जल्दी रिसर्च शुरू करने की कोशिश करने के लिए मजबूर किया। जनवरी में भारत ने जमैका स्थित इंटरनेशनल सीबेड अथॉरिटी में अपनी अर्जी भी दी थी कि उसे वहां पर रिसर्च करने की अनुमति दी जाए, इसके लिए भारत ने 5 लाख डॉलर की फीस भी दी थी।
दरअसल, अगर कोई समुद्री क्षेत्र किसी भी देश के क्षेत्र में नहीं आता तो वहां रिसर्च करने के लिए ISA की अनुमति लेनी पड़ती है।
ISA ने भारत की यह मांग मानने से इंकार कर दिया क्योंकि भारत के अलावा एक और देश ने यहां पर रिसर्च करने की अनुमति मांगी थी।
इस देश का नाम सार्वजनिक नहीं किया गया है लेकिन सीमा के हिसाब से देखा जाए तो यह श्रीलंका ही हो सकता है। भारत ने ISA को इस क्षेत्र से जुड़े सारे साक्ष्य उपलब्ध करा दिए हैं और एक बार फिर से इस क्षेत्र में 15 सालों तक रिसर्च और खनन करने की अनुमति मांगी है।
श्रीलंका का दावा क्या….
श्रीलंका, भारत का समुद्री सीमा के लिहाज से सबसे करीबी देश है। किसी भी देश की समुद्री सीमा अंतर्राष्ट्रीय नियमों के हिसाब से उसकी जमीनी सीमा से 12 नॉटिकल मील तकरीबन 22.2 किलोमीटर होती है। यूएन की संधि के मुताबिक कोई भी देश 200 समुद्री मील तक के क्षेत्र में आर्थिक गतिविधियां कर सकता है।
द्वीपीय देशों के पास यह अधिकार होता है कि वे इससे भी ज्यादा क्षेत्र पर अपना अधिकार जता सकते हैं। श्रीलंका 2009 में ऐसा कर भी चुका है। हालांकि श्रीलंका की मांग को अभी तक स्वीकार नहीं किया गया है, अगर इस मांग को स्वीकार कर लिया जाता है तो यह कोबाल्ट का भंडार श्रीलंका के समुद्री क्षेत्र में आ जाएंगा। पाकिस्तान और ऑस्ट्रेलिया की इस तरह की मांगों को स्वीकार कर भी लिया गया था।
रिपोर्ट के अनुसार भारत पहले इस मामले से खुद को दूर बनाए हुए था लेकिन हिंद महासागर में चीन की बढ़ती दखलअंदाजी के कारण भारत को ऐसा करने के लिए मजबूर होना पड़ा। भारत को यह एहसास है कि चीन का प्रभाव हिंद महासागर में बढ़ रहा है ऐसे में वह भी इस क्षेत्र को भी प्राप्त करने का प्रयास कर सकता है।
भारत के लिए कोबाल्ट क्यों है जरूरी
भारत की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए कोबाल्ट एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। भारत और दुनिया भर में इलेक्ट्रिक वाहनों का चलन तेजी से बढ़ रहा है।
कोबाल्ट का इस्तेमाल इलेक्ट्रिक गाड़ियों और बैटरियों को बनाने में किया जाता है। कोबाल्ट से प्रदूषण कम होता है और यह ज्यादा लम्बे समय तक उपयोग किया जा सकता है। कोबाल्ट का यह समुद्री पहाड़ अगर भारत को मिल जाता है तो इलेक्ट्रिक गाड़ियों की बैक्ट्रियों को लेकर भारत की चीन पर निर्भरता कम हो सकती है।
अंतरराष्ट्रीय अक्षय ऊर्जा एजेंसी के अनुसार आज के समय में दुनिया के 70 फीसदी कोबाल्ट और 60 फीसदी लिथियम पर चीन का कंट्रोल है।
भारत में अभी कुछ दिनों पहले ही कश्मीर में लिथियम के भंड़ार मिले थे ऐसे में अगर भारत को यह कोबाल्ट का पहाड़ मिल जाता है तो यह भारत के 2070 तक नेटजीरो हासिल करने के लक्ष्य में एक बड़ा कदम साबित होगा।
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